Manoj Bajpayee On Inspector Zende: अपनी आगामी फिल्म ‘इंस्पेक्टर जेंडे’ को लेकर चर्चाओं में बने मनोज बाजपेयी ने बताया कि आखिर क्यों मुंबई उन्हें अपना नहीं लगता है। साथ ही उन्होंने अपने फ्यूचर प्लान के बारे में भी की बात।
मनोज बाजपेयी की फिल्म ‘इंस्पेक्टर जेंडे’ 5 सितंबर को ओटीटी पर रिलीज होने वाली है। इसके अलावा मनोज बाजपेयी 27 साल बाद राम गोपाल वर्मा के साथ भी काम कर रहे हैं। अब अभिनेता ने अमर उजाला से इन दोनों फिल्मों, करियर और निजी जीवन पर विस्तार से बात की।
इंस्पेक्टर जेंडे’ ऑफर होने पर आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी? जब स्क्रिप्ट पढ़ने के लिए मिली तो लगा कि यह कोई सीरियस गंभीर थ्रिलर फिल्म होगी। जैसे पुलिस वाले की परेशानियों भरी कहानियां होती हैं, लेकिन जब पढ़ना खत्म किया तो मजा आ गया। मैं खुद चौंका क्योंकि बार-बार हंसी आ रही थी। कहानी में कॉमेडी बिल्कुल जबरदस्ती ठूंसी हुई नहीं लगी। यह सब पढ़कर लगा कि इसमें एक्टिंग करते समय खुद से भी बहुत कुछ नया करने का मौका मिलेगा।
बतौर एक्टर कई गंभीर रोल करने के बाद जब ऐसी हल्की-फुल्की फिल्में करते हैं, तो क्या कोई फर्क महसूस होता है? हां, फर्क तो पड़ता है। चाहे मैं हल्का रोल करूं या गंभीर, मेरी कोशिश रहती है कि घर जाकर सामान्य रहूं। लेकिन सच में ऐसा हो नहीं पाता। मेरी जिंदगी कहीं न कहीं सेट से जुड़ जाती है। शूटिंग के दौरान मेरी हमेशा कोशिश रहती थी कि जल्दी घर पहुंच जाऊं। लेकिन मुंबई का ट्रैफिक बड़ा झंझट है। शाम को निकलने पर जब तक घर पहुंचता हूं, फैमिली सो चुकी होती है। मेरी बेटी जब छोटी थी तो मेरा इंतजार करते हुए सो जाती थी। फिर जब मैं घर पहुंचता तो वो उठ जाती थी और फिर उसे सुलाना मुश्किल हो जाता था। ऐसे में फिर मैंने होटल में रहना शुरू किया। अगर शूटिंग मुंबई में भी हो, तो मैं घर न जाकर सेट के पास वाले होटल में ठहरता हूं। इससे मेरा रूटीन बना रहता है।
क्या कभी इस बात का अफसोस होता है कि बेटी को समय नहीं दे पाए? (हंसते हुए) अगर कोई कहता है कि ऐसा नहीं होता, तो वह सच में किसी और दुनिया में जी रहा है। अगर पति-पत्नी दोनों कमाते हैं, तो किसी तरह से बच्चे की देखभाल का रास्ता निकाल ही लेते हैं। लेकिन अगर सिर्फ एक बाहर काम कर रहा है, तो उसके लिए यह अफसोस और भी गहरा होता है। ये एक अलग तरह का दर्द है और साथ ही मजबूरी भी है।
किस रोल से बाहर आने में सबसे ज्यादा वक्त लगा? मेरे साथ यह अनुभव ‘शूल’ के समय हुआ था। उस समय हमें यह तो समझ आ गया था कि किरदार में कैसे जाया जाता है, लेकिन यह नहीं पता था कि उससे कैसे बाहर निकला जाए। मेरी पर्सनैलिटी भी ऐसी रही है कि अगर किसी ने कुछ कह दिया, तो वह दिमाग में घूमता रहता था। इग्नोर करना मुझे आता ही नहीं था। ‘सत्या’ के ‘भीकू मात्रे’ के किरदार से निकलने में भी काफी वक्त लगा। यहां तक कि उस दौरान मैं ज्यादा गालियां देने लगा था और गुस्सा भी ज्यादा आने लगा था। उसे छोड़ने में काफी मेहनत लगी। बाद में जब अनुभव बढ़ा, तो बाकी रोल्स के साथ यह समझ भी आ गई कि किरदार से कैसे बाहर निकला जाए। लेकिन ‘शूल’ वाला रोल मेरे लिए सबसे मुश्किल था।
क्या कभी ऐसा महसूस किया कि इंडस्ट्री या मुंबई से दूर चला जाऊं? एक्टिंग से दूर जाने का ख्याल कभी नहीं आया। मुझे एक्टिंग से बेइंतहा मोहब्बत है। लेकिन कई बार यह जरूर लगा कि बड़ा शहर मेरे बस का नहीं है। मुंबई कभी मुझे अपनापन नहीं दे पाया। मैं आज तक बड़े शहर का आदमी नहीं बन पाया इसलिए कई बार मन हुआ कि सब छोड़कर चला जाऊं। शायद एक उम्र आने पर मैं सचमुच इस शहर को छोड़ दूं